अनुराग तो कर लिया तुमने,
अपने पूरे राग से,
लेकिन क्या संभाल सके तुम,
मेरे निष्कलंक अन्तःकरण को,
क्या तुम स्तुत्य कर पाए,
मेरी नासमझ नादानियों को,
बताओ, क्या तुम समझ सके,
मेरे नादान प्यार की भाषा को...?
अनुराग में लिखी मैंने अपनी कविताओं में
कभी भी तुमको उपमेय नही बनाया,
सदैव एक जगह दी,
तुमको उपमान मानकर,
जो हमेशा ही एक नई प्रकृति
दिखाता है,
मुझे पावन चाह की।
मैंने तो अपने पूरे जीवन मे,
सर्वोपरि रखा है तुमको,
और.....
लेकिन क्या तुमने दिया है कभी
सच्चे रूप में मान मेरी आत्मा को..
क्या तुम पहुँचा सके मुझे
उस चरम तक मेरे प्रयत्नों को ले ?
क्या दिया कभी तुमने पुरस्कार,
मुझे मेरे व्यवहार के मानिंद...?
यह मेरा अनुरागी प्रेम,
जो सिर्फ तुम्हारे प्रेम में ही
उन्मादी है,
जिसने कर लिया स्वयं को
तुम तक ही सीमित....
बंद कर ली हैं आंखें,
मैंने वही सुना...
जो तुमने मुझे सुनाया,
वहीं तक देखा,
जहाँ तक तुमने मुझे दिखलाया,
अपने पूरे मन-तन से मैंने तुम्हें
हर पल सहलाया....
तुमने तो पूरे जगत को
अपना बतलाया,
कह सके एक बार भी
मैं हूँ सिर्फ तुम्हारा जीवन,
क्या तुमने जरूरी समझा,
मेरे अनुरागी प्रेम की
पाक महक को,
बताओ, क्या तुम मुझे वह जगह
दे पाये.. .
जिसका दृष्टांत देते हो,
सदैव समझदारी के रूप में।
मैंने चाही सदैव एक निर्णय पर,
कि मुझे ख्याति मिले,
बस इतना ही न...
मैं तुम्हारे लिये
समझ होकर भी नासमझ रही हमेशा,
तुम सब जानते हो ये,
फिर भी अनजान रहे,
एक बात और ये भी कि-
मैंने तुम्हारी आवाज को ही
अपना पसंदीदा संगीत कहा,
तुम्हारी महक में ही,
मैं मदहोश-सी डोलती रही...
किन्तु क्या तुम,
ये सब आंकलन कर पाए हो कभी,
इस सबके मध्य,
सिर्फ मेरे अनुरागी मन की आस ही है,
मैंने सदैव तुम्हारे मुख पर,
उसमें उमड़ते भावों को
ध्यान से देखा और पढ़ा है,
लेकिन क्या तुमने इसमें
जुड़ी मेरी सार्थक इच्छाओं को जान,
आज अगर समय के साथ थोड़ी
परिस्थिति बदल गई....
तो क्या मुझे कुछ भी बोलने का
हक नही रहा,
प्रत्येक झण मेरे लिए
कुछ भी मायने नहीं रखता...?
आस करती थी,
सिर्फ और सर्फ मेरे साथ की..
लेकिन क्या तुम खड़े हो,
सबको परे कर मेरे साथ... ?
शायद नहीं,
और अब मैं खुद से ही
लड़ने लगीं हूँ,
अपने अधिकार के लिए,,,
तुम तो कह देते हो,
बड़ी आसानी से
कि--
समय के साथ सब बदलता है,
तो क्या रिश्ते भी बदल जाते है
कभी...
छोड़ दे रहे हो,
बीच मझधार में,
मुझे अकेला,
अरे, मैं नादान--
है अनुराग मेरा ऐसा ही...
माफ कर दूंगी तुमको,
चली जाऊंगी बहुत दूर कहीं,
लेकिन क्या तुम उस अज्ञात सत्ता में,
माफी दे पाओगे मुझे..
ईश्वर की बनी नियामत है-अनुराग,
वह कहीं भी हो,
पर रखता है गिनती,
हर एक आँसुओं की....
बताओ, क्या तुम बच पाओगे,
उसके बनाये इस राग से,
क्या कर पाओगे न्याय मेरे साथ...!!
डॉ पल्लवी सिंह 'अनुमेहा'
बैतूल, मध्यप्रदेश,
भारत