आवाज

अरुणिता
द्वारा -
0

सुनो!

जरा देखना

मैंने बाहर आँगन में

भूमिका की लटकती अलगनी पर

सामयिक धूप में सूखनेके लिए

कुछ छोटी कविताएँ

डाल रखी है

देखना,कहीं शब्द लहू-लुहान तो 

नहीं हो रहे

देखना,कहीं इंसानी पाशविकता ने

शब्दों को अक्षर-अक्षर में तो नहीं बाँट दिया

फिर आँगन से यह चिल्लाने की आवाज़

क्यूँ आ रही है

ये आवाज़ मेरी कविताओं के हैं

टूटकर बिखरने का दर्द

यह उन्हीं पंक्तियों के हैं

जिन्हें मैंने शांति के क्षणों में

गढा है

देखो,जरा,जल्दी से

भूमिका की लटकती अलगनी से

मेरी रोती कविताओं को

चिल्लाते अक्षरों को

मेरे पास जल्दी ला दो।


अनिल कुमार मिश्र,

राँची, झारखंड


एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn more
Ok, Go it!