बेहया

अरुणिता
द्वारा -
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ना करतीं मनुहार 

उग जाती घर के कौन- कौन 


 मध्यम मन के आंच में

ना पढी 

ना सुनीं

किसी ने मन की कोई थ्योरी उसकी

गणित की बन असफल विधार्थी

विलुप्त हो चुकी थी उसकी

गुणांक- भाग और संवेदना


मन का एक विस्तृत कोना

गढ़ देतीं ना जाने कौन सी कविता


सिरहाने पे रखकर धृणा

रोज़ छौक लेतीं 

नमक- मिर्चा


ना जाने कौन सी घूटी पी के

सुनती- बुनती

बच्चों की किलोकते बतियां


अनयाय ही कहाँ

चिरस्थाई फैल चुकी थी

बनके बेहया की बगिया

कहतीं- सुनती

 खिड़की से झांकती

 क्षितिज से बोलती

 एक ही बतियां

मैं जीवित हूँ

तुम जीवित हो

इस बात की प्रमाणित करतीं

तेरी- मेरी  मौन कविता

थोड़ा थोड़ा लिख कर

अदृश्य डोर में जिवित रहतीं 

चुप्पी साधे मुडेर सुनें

खूंटी तेरी है कौन अपना

पौधे भी बेहया के

अभिव्यक्ति लिये

 उगते यहाँ। 


अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तर प्रदेश 


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