प्रिय सुनंदा
पूरे एक साल बाद तुझे मेरा पत्र मिलेगा।मेरा पत्र न पाकर तूने मन ही मन अंदाजा लगाया होगा कि तेरा शक गलत निकला और तेरी सखी ससुराल की मौज मस्ती में अपनी बाल सखी को भूल गयी।मै जानती हूं कि जब मेरा पत्र तुझे मिलेगा,तू उत्सुकता से खोलेगी और एक ही सांस में पूरा पढ़ जाएगी। फिर किसी कुर्सी की टेक लगाए जड़ सी हो जाएगी और बांचा हुआ पत्र तेरे हाथ में बेजान सा झूल जाएगा। मुझे विश्वास है ऐसा ही होगा।
हमअपना अपना सुख दुख एक दूसरे से निसंकोच कह लेती। तू भली प्रकार जानती है कि मेरे चेहरे पर पड़े फूल देखकर लोग मुझसे कितनी घृणा करते थे स्वयं मां भी कहीं जातीं तो अकेली मैं ही घर की रखवाली को रह जाती। कोई समारोह होता तो सबके नए कपड़े बनते और मैं अपने मन की तरह ही
पुराने कपड़ों में दबी ढकी पड़ी रहती। मैं क्या चाहती हूं इससे किसी को कोई मतलब न था। मेरे दुश्मन मेरे चेहरे पर पड़े फूल थे इन्हीं के कारण मुझे अपने मन को मारना पड़ता था। अपने जीवन के रंगों को उखाड़ फेंकना और मात्र अंधेरों में जीना पड़ता था।
।इंटरवैल में कक्षा की लड़कियां साथ साथ टिफिन खोलतीं और मैं अकेली उदास अपना टिफिन लिए किसी पेड़ के नीचे बैठ जाती।खाने का सारा उत्साह सिमट जाता।भूख मिट जाती क्योंकि वे सब छीना झपटी करतीं एक दूसरे का टिफिन चटखारे लेकर खाते उन्हें देखती रहती।एक दो बार अपना टिफिन लेकर उनके पास ग ई थी, लेकिन अपमानित होकर लौटीं।
प्रिया कहती-"यह मुंह और मसूर की दाल"-सभी मुझे मेरी औकात बताकर मुंह बिचकाकर हंस देतीं।अंजु कहती-"कभी आइना देखा है।"आइना तो नहीं देखा पर आइना दिखाने वाले अवश्य देखें हैं।कभी वीणा के वाक्य नश्तर चुभोते -"हमारी टोली में सम्मिलित होने के लिए रश्मि को दूसरे जन्म तक प्रतिक्षा करनी पड़ेगी।मेरी मम्मी ने तो बिल्कुल मना कर दिया है।कह रहीं थीं कि जहां ऐसी लड़कियां पढ़ती हैं वहां नहीं पढ़ना चाहिए।वे तो मुझे अन्य स्कूल में दाखिला दिलाने की भी बात कर रहीं थीं"मैंने अपमानित हो अपना टिफिन फेंक दिया था कि तभी लड़कियों के झुंड से अचानक तू उठी। मेरे कंधे पर हाथ रखा और उनको डांटा-"तुम लोगों को ऐसा नहीं कहना चाहिए।किसी की बीमारी का मज़ाक़ बनाना ठीक नहीं।"
"बीमार है तो घर बैठे.... इलाज कराएं।अपनी बीमारी औरों को बांटने क्यों चली आती है?जो सही है हम तो वहीं कह रही है।पता नहीं प्रिंसिपल ने क्या सोचकर दाखिला ले लिया।"हाथ नचाते हुए मीरा ने कहा था।
"अब बहुत हो गया।चुप भी कर"-तू चीख उठी थी।
"क्यों चुप हो जाएं? तुझे इतना लाड़ उमड़ता है तो तू ही इसका जूठा टिफिन खा। अपने साथ खिला। अपने साथ बिठा"-वह बोली।वीणा ने तुम्हारा प्रतिकार किया था।तुम भी अड़ गयीं कि हां अब मैं इसके साथ बैठूंगी।सबकी चुनौती स्वीकार करते हुए तुमने भावावेश में कहा था।तभी से सबने तुम्हें भी अलग कर दिया था।
तू असहाय सी वहीं खड़ी रही गई थी।तेरी मनोदशा जानने की मनःस्थिति मेरी नहीं थी।मैं पैर पटकती दूर एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गई थी।पता नहीं कब तक बैठी रही। अचानक तेरे हाथ का स्पर्श पाकर मैंने मुंह उठाकर देखा था।तू मेरा बस्ता लेकर खड़ी थी। छुट्टी हो चुकी थी।,सभी अपने अपने घर जा रहे थे।इसका मतलब मैं अकेली पूरे चार पीरियड पेड़ के नीचे बैठी रोती रही थी।किसी की नजर मुझ पर नहीं पड़ी।पड़ भी ग ई होगी तो कौन मुझे बुलाकर इनाम देने वाली थी।मैं तो वैसे भी सबके लिए अस्पृश्य और घृणित थी। तूने मुझे सहारा देकर उठाया। अपने दुपट्टे से मेरे आंसू पोंछे और कहा कि रश्मि तुझे अपने अंदर कभी न बुझने वाली आग जलानी है। तुझे अपनी मेहनत और लगन से सबकी घृणा जितनी है। मैंने नज़र उठाकर तुझे देखा था। तुझे ऐसी बातें कौन सिखाता है।पूछते हुए मैं मुस्कुरा पड़ी थी।अभी नहीं धीरे धीरे सब समझ जाएगी।कहती हुई तू मुझे स्कूल के सदर दरवाजे पर छोड़ कर अपने घर की ओर मुड़ गई।और मैं लड़खड़ाते हुए अपने घर आ ग ई।
हालांकि स्कूल जाने का पहला दिन नहीं था।मैं पिछले पांच साल से अपमान सहती और झिड़की खाती आ रही थी, लेकिन तब शायद इतनी समझ नहीं थी।समझ आने पर ही मान अपमान का पता चलता है। फिर उस समय ओंठ के नीचे एक छोटा सा फूल था।और अब तक बढ़ते हुए ये फूल आंखों के नीचे अपना स्थान बना चुके थे।
स्वंय ही दर्पण देखकर मन करता कि अपना ही चेहरा नोच लूं। पड़ोसी भी मेरे घर पर आना जाना पसंद नहीं करते थे। मेरी हम उम्र लड़कियां मुझे देखकर मुंह बिचकाकर मुंह फेर लेतीं।ऐसा मेरे साथ क्यों होता है मैं सब समझने लगी थी। अपेक्षा बच्चे को जल्दी समझदार बना देती है।
मां मुझे जगाने आईं तो माथा
छूकर बोली-" रश्मि तुझे तो बहुत तेज बुखार है तूने बताया क्यों नहीं?" मैं केवल मां की आंखों में झांक कर रह गई। मां को वास्तव में मेरी चिंता है या मात्र दिखावे के लिए कह रही हैं। ओठों पर चिपके शब्द आंखों से जल उठे '"तुम्हें मेरी फिक्र क्यों होने लगी मां,मैं तो अनचाही बच्ची हूं।तुम भी सोचती होगी कि मेरा रोग अन्य भाई बहनों को न लग जाए ।मुझे सहना तुम्हारी मजबूरी है और तुम्हारी मजबूरी शब्दों के कोड़े बनकर जब तक मुझ पर बरसती रहती है।" रोती क्यों है? मेरी आंखें पोंछने के लिए अपना आंचल मेरी और बढाया। मैंने झट से कह दिया-" आपका आंचल गंदा हो जाएगा ।अभी तो तुमने पूजा भी नहीं की होगी।"
पूरे पन्द्रह दिन तक में बिस्तर पर पड़ी रही। केवल तू ही मुझे देखने रोज आती थी। हिम्मत बढ़ाती। मेरा दिल बहलाने की कोशिश करती। तेरे सामने मैं रोकर मन हल्का कर लेती। स्कूल जाने और पढ़ने की इच्छा बिल्कुल मर चुकी थी। किताबों से चिढ़ हो गई थी। जब तबीयत ठीक हो गई तो मैंने मां के सामने घोषणा कर दी कि मैं स्कूल नहीं जाऊंगी। पढ़ूगी भी नहीं। घर में रहकर घर का काम करूंगी।
मेरी घोषणा सुनकर मां सकते में आ गई थी। तू जानती है कि क्या कह रही है?शिक्षा ही तो तेरा सहारा है। मां समझाने लगी थी। तुम समझती क्यों नहीं मां। पढकर कौन मान अपमान से मैं मुक्त हो जाऊंगी ।"किसी ने कुछ कहा सुन दिया हो तो मन से निकाल दे। दूसरों के कहे पर ध्यान देने से जीवन नहीं चलता" मां ने लाख समझाना चाहा लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ी रही। फिर मां ने तेरा सहारा लिया और तू फिर मुझे लेकर स्कूल जाने लगी। स्कूल में तू छाया की तरह मेरे साथ रहती। मुझे तेरे साथ देख कर अब लड़कियों ने व्यंग्य कसने कम कर दिए थे फिर भी स्कूल के वार्षिक जलसे में कबड्डी टीम से मुझे हमेशा दूर रखा जाता
पिताजी मेरे इलाज को लेकर परेशान थे। रोज नई-नई दवाइयां लाकर देते। जो कोई जहां किसी वैद्य हकीम या डॉक्टर बताता वे वही दौड़ जाते।पांच भाई-बहन का परिवार जैसे-तैसे गाड़ी खिंच रही थी।फूल मेरे सिर में भी हो गए। त्वचा के रंग के साथ-साथ बालों का रंग भी बदल गया तब तक किसी प्रकार से इंटरमीडिएट ही कर पाई।
तभी एक दिन छोटी मामी अपने गोल मटोल दो वर्षीय बेटे को लेकर आ गई ।अनायास ही मैंने उनके बेटे को गोद में लेकर चूम लिया। मामी बिगड़ पड़ी-" रश्मि इतनी बड़ी हो गई ।क्या जरा भी सोच नहीं बची? दीदी क्या आपने इसे इतना भी नहीं सिखाया?" मामी की बात सुनकर सब सकपका उठे थे। उन्होंने मुझे कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मैं अपमान की ज्वाला से धधक उठी थी।-" मामी मुझे तो समझ नहीं है समझ आपको भी नहीं है। आपको यहां नहीं आना चाहिए था-" कह कर मैं अंदर चली गई मामी की आवाज मेरे कानों से टकराती रही -"आपने सिर चढ़ा रखा है दीदी। ऐसी लड़कियों को दबाकर रखा जाता है।"
"नेहा रश्मि ने ऐसा कुछ नहीं किया कि तुम परेशान हो जाओ"- पापा के इतना कहते ही मामी रुआंसी हो उठी-" मैंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा जीजा जी। आप भी उसी का पक्ष ले रहे हैं।" "मैं पक्ष नहीं ले रहा बल्कि अपने घर में अपनों को परायो से अपमानित होने से बचा रहा हूं"- पिताजी कहते हुए दुकान चले गए और मुझे पहली बार लगाकि पिताजी मेरा दुख समझते हैं । मां इस समस्त वार्तालाप के मध्य एकदम बोनी हो उठीं।पहली बार घर आई छोटी मामी से ऐसे स्वागत की आशा उन्होंने कदापि नहीं की होगी।मेरे साथ मां ने भी बहुत कुछ सहा होगा- यह मैं उसे दिन जान पाई। मामी ने डेटॉल के पानी से तभी अपने लड़के को नहलाया और शाम की गाड़ी से वापस चली गई। उनके जाने के बाद भी वातावरण बोझिल बना रहा मानो शब्द जैसे थम गए हों , भावनाएं शून्य हो गई हो।
अब लगता है की मां ठीक ही करती थी जो मुझे अपने साथ नहीं ले जाती थी इसी बहाने वह मेरे स्वाभिमान के साथ-साथ अपने स्वाभिमान की रक्षा भी कर लेती थी इन सारी बातों से मुझ में एक जिद्द सी भरती जा रही थी। मेरा तिल तिल अपमान मुझे विद्रोही बना रहा था ।जो बात सीधे करने को कही जाती मैं ठीक उसके विपरीत करती ।दूसरों को कष्ट देने में मुझे आनंद आता । हां सुनंदा ,एक एक बार स्मरण है मुझे। हां इसलिए कि मुझे अब तक बेरहमी से धीरे-धीरे चीरा गया। सब महज चीरते रहे। मेरा खून बहाते रहे। कोई दो हाथ कोई दो आंख या एक जीभ जरा सा भी मरहम ना दे सका। काश किसी के सानिध्य से क्षणिक विश्रांति मिलती तो उसी की मधुर स्मृति में पूरा जीवन काट लेती और अपने होने की सार्थकता पा लेती।कम ही कम जीवन को बोझ की गठरी कीतरह ढ़ोने का एहसास तो पुख्ता न होता।
तू समझ गई होगी सुनंदा। शिव ने तो मात्र एक बार ही विष पिया और नीलकंठ कहलाए पर मैं अपना होश संभालते संभालते विष पीना सीख गई ।अभी भी पी रही हूं और जब तक जिऊंगी पीती रहूंगी।
पिताजी दवाई ला कर देते और मैं नाली में फेंक आती। जू ही मुझे अपने कपड़े पहनने से मना करती और मैं जानबूझकर उसके कपड़े पहनती। उनमें दाग धब्बे लगा देती या फाड़ देती। छोटी बहनों के चेहरे पर स्याही पोत देती ।जूही को देखने लड़के वाले आए। मां ने खास हिदायत दी थी कि रश्मि उधर मत आना और मैं जानबूझकर नाश्ते की ट्रे उठा सबके सामने जा पहुंची। वे लोग जूही को बिना देखे चले गए। मां तो केवल रो कर रह गई, लेकिन उस दिन पिताजी का क्रोध मुझ पर उतरा ।मैंने कोने से छड़ी उठाई और पिताजी से बोली -"लीजिए पिताजी मारिए मुझे। इतना मारिए की मेरा प्राणान्त हो जाए। मैं भी अपने आप से तंग आ चुकी हूं। किस-किस से बदला लूंगी ।"क्षण भर में पिताजी का क्रोध आंसू बनकर पिघल गया था ।उन्होंने मुझे छाती से चिपका लिया था और सर पर हाथ फेरते हुए कहा था मैं तेरी व्यथा समझता हूं रश्मि।" कितने करूण हो उठे थे वे।
हम सब अपनी-अपनी विवशता व क्रोध एक दूसरे पर उतारते रहते , लेकिन उसे दिन के बाद मैंने अपने क्रोध को सुला दिया।मैं एकदम शांत हो जैसे बुत बन गई। जूही की शादी मां पिताजी दिल्ली जाकर कर कर आए ।शायद उन्हें अभी भी मुझ पर भरोसा नहीं था। जूही का सारा दहेज मैं ने
दौड़ दौड़कर इकट्ठा किया था उसके ससुराल जाने से एक रिक्तता मुझमें आ गई।
मां पिताजी अब मुझे लेकर परेशान रहने लगे। मैं नहीं समझ पाती सुनंदा की विवाह को ही जीवन की मंजिल क्यों समझा जाता है। पिताजी जहां बात चलाते वहां बात चलने से पहले ही समाप्त हो जाती ।एक दो लोग मुझे देखने भी आए लेकिन साफ मना करके चले गए। नीतू नीतू के कद मुझ से आगे निकलने लगे थे।वे फुसफुसा कर अक्सर अपनी सहेलियों से बातें करतीं कि हमारे सामने का पत्थर तो किसी बुलडोजर से ही हटेगा और बुलडोजर खरीदने का सामर्थ्य पिताजी में नहीं है। रिश्तेदार भी कहने लगे कि एक के चक्कर में दूसरी व तीसरी लड़कियों को कब तक घर बिठाए रखोगे
एक दिन मैंने हिम्मत की पिताजी आप मेरी चिंता छोड़िए मैं आगे पढ़ूंगी और पढ़ाऊंगी भी सुनकर पिताजी मेरे चेहरे की और देखते रह गए थे जैसे पूछ रहे हैं पगली तुझे नौकरी कौन देगा फिर जैसे मेरा मन रखने के लिए बोले-" जैसे तेरी इच्छा ।पढेगी तो मन लगा रहेगा ।कल ही फॉर्म मंगवा दूंगा। जब तक स्कूल में नौकरी ना मिले तब तक मन लगाने के लिए पड़ोस के बच्चों को पढ़ा लिया कर।" सचमुच मुझे नौकरी मिलना इतना आसान न था मेरा चेहरा मेरी सबसे बड़ी बाधा थी।
अब जीवन जैसे चुनौती बन गया था।बड़ी मुश्किल से पांच सौ रुपए महीने की नौकरी मिली।कोई नया स्कूल खुला था और इससे सस्ती अध्यापिका उन्हें मिल नहीं सकती थी।मैं जितने कांटे रोज चुनती उससे ज्यादा बिखर जाते।राह चलते पांवों को लहुलुहान होना ही था।अब तो आदत सी बन गई थी।अब किसी चोट पर आह भी नहीं निकलती।
सुनंदा तुम तो जल्दी ही ससुराल पंहुच गई। मैंने भी हंसते हंसते अपने चार छोटे भाई बहनों की शादी कर दी।मैं अपनी देह को जगने से पहले ही सुला देती। जैसे सोना मेरी नियति बन चुका था। मां पिताजी को जरूर हर वक्त मेरी चिंता लगी रहती।वे हमेशा अपने प्रयास में लगे रहते। उम्र के पैंतीस साल कब पतझड़ बन निकल गये पता ही न चला।
मेरे विवाह का निमंत्रण पत्र पाकर तू चौंक उठी थी।और तूने छमा याचना सहित एक लम्बा सा पत्र मुझे लिख अपना बुर्जुवा अंदाज बखान दिया था। वैसे भी शादी जैसा वहां कुछ नहीं था। लेकिन तुझ बाल सखी से मिलने की चाह उमड़ पड़ी थी जैसे मृत्यु पूर्व अपने किसी निकट संबंधी को देखने की उमड़ती है।जो कुछ तू मुझे सामने कहती वह सब तूने पत्र में लिख दिया था।तेरा लिखा एक एक शब्द उसी प्रकार मेरे जीवन में घटित हुआ है।
जब कभी रात के अंधेरे में कपिल मेरा बदन टटोलते हैं तो मुझे तेरे शब्द याद आ जाते हैं। तूने लिखा था कि रश्मि ये कैसा निर्णय ले लिया।विवाह के बाद की हर रात तेरे लिए बलात्कार की रात होगी।तू महज एक जिस्म बनकर रह जाएगी। कपिल तुझे रौंदेगा मसलेगा पर प्यार नहीं
कर पाएगा।उसके ओठों का मधुर कंपन तू पलकों पर नहीं पा सकेगी।तेरी देह जागती और सुलगती रहेगी और तू कुछ नहीं कर पाएगी।यदि देह एक बार जाग जाए तो उसे सुलाना मुश्किल होता है।क्या तू विदेह बन सकेगी?
हां सुनंदा प्रणय के मधुर क्षण मुझे नहीं मिले।मेरी रातों में केवल अंधेरे ही होते हैं। मैंने अपने प्रणयी का चेहरा प्रणय के क्षणों में नहीं देखा। अपने चेहरे पर उनकी मादक श्वासों का एहसास नहीं किया। सुलगते होंठों को कोई शीतल लेप नहीं मिला। तूने कठपुतली का खेल देखा है सुनंदा। कठपुतली तो दूसरों के इशारे पर नाचती है।मैं भी नाच रही हूं।अब मैं तुझे यह भी बता दूं कि मैंने यह निर्णय क्यों लिया।अपने ही घर में मां पिताजी के सामने भाभी द्वारा मेरी सीमा केवल घर के बाहर बैठक तक निश्चित कर दी गई।मैं कैद में छटपटाऊं कि मां पिताजी ने मेरी मुक्ति की राह तलाश ली।
सोचती हूं तो ठीक ही लगता है कि यदि समय रहते मेरी भी शादी हो गई होती तो कपिल के जितने बड़े मेरे भी बच्चे होते।मैं उनकी तरफ बाहें फैलाती हूं तो वे मुझे राक्षसी कहकर कमरे में चले जाते हैं।मेरे द्वारा बनाया खाना फेंक देते हैं।मेरा हर पल अग्नि परीक्षा का है।काठ बन गई हूं मैं। संबंधों के ढ़ेरों दरिया हैं,पर मैं चुल्लू भर भी आचमन नहीं कर सकती।
अरे हां,एक बात बताना तो भूल ही गयी।शायद तू भी न जानती हो। कपिल जब मुझे ब्याहने आया था तब अपने मोजे में पांव तले पूर्व पत्नी की चांदी की प्रतिमा को रौंदता हुआ लाया था और उस चांदी की प्रतिमा को मां को थमाते हुए कहा था-"मांजी,आप अपनी लाड़ली के सुख के लिए इस पराई पुत्री को कुएं में फेंक आइए।तभी सप्तपदी होगी।"
मां उसे कुएं में फेंक आईं थीं। मां को कोई दुःख नहीं हुआ था।पर यदि कोई मुझे भी ऐसे ही फेंक दें तो मां को कैसा लगेगा।खैर,यह नाटक में अनजाने में देख गयी थी।मन हुआ था कि ठहाके लगा कर हंसूं और हंसते हंसते पागल हो जाऊं।बीस वर्ष का साथ जो व्यक्ति पांव से रौंदकर मुझे ब्याहने आया है वह केवल जिस्म का भूखा है, इतना तो तभी समझ गई थी।
तू समझ सकती है सुनंदा की क्या मैं उस निर्दयी पुरुष को पति मान पाऊंगी।मैं रोज एक सपना देखती हूं कि मैं भी चांदी की सौत बनी कपिल के मोजे में पड़ी हूं।एक औरत मुझे कुएं में फेंकना चाहती है।मैं जाग जाती हूं।काश! मैंने उस समय मां को रोक दिया होता और उस नारी प्रतिमा को मस्तक से लगाकर घर के किसी कोने में स्थापित कर दिया होता।अब पछताती हूं।यदि उस समय तू मेरे पास होती तो समझा बुझाकर कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेती।अब वही चांदी की सौत हमारे बीच आ जाती है।उनकी देह मेरी खुशबू से नहीं महकती,बल्कि उनकी पहली पत्नी का स्पर्श उनके रोम रोम में महसूसती हूं। मुझे लगता है कि मैं जूठन चाट रही हूं।
एक जूठा आदमी और उसे पीती जीती मैं। मुझे कितनी मितली आती है ,मैं ही जानती हूं।इस विडम्बना को मुझे जीना है,बस यही मेरा जीवन है।अब तो तेरे लिए कुछ भी अनदेखा अनकहा नहीं रहा।बस यही मेरी कहानी है।बस तेरी ही......
सुधा गोयल
२९०-ए, कृष्णानगर, डॉ० दत्ता लेन,
बुलंद शहर -२०३००१
उत्तर प्रदेश