दो तन एक मन

अरुणिता
द्वारा -
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वृन्दावन कुंज को छौंड़ि के जब,

 श्याम चले श्री मथुरा धामा। 

कंस के वध कौ समय अब आयो, 

अक्रूर के संग चले दाऊ श्यामा।। 

आखरी मिलन कूँ जो आये मोहन, 

राधा मिली तौ रोय गई वामा। 

वृन्दावन तो कभी आने नहीं, 

मैं कौन भरोस रहूँ घनश्यामा।। (1)


संग में मोकूँ भी ले लेओ माधव, 

निपट अकेली यहां बिलखा करूँगी।

मैं भी यहाँ अरु तुम भी यहाँ, 

सिन्दूर भरो "ना" मैं आज करूंगी।। 

मोकों बनाऔ सुहागन अब तौ, 

हरसित मनते में भी साथ चलूँगी। 

मन की यह चाह करौ अब पूरी, 

अकेली नहीं में भी संग रहूँगी।। (2)


यह सुन कृष्ण विचार कर यौ, 

रचि लीला मन ते मोह हटायौ। 

फेर् यो म्हों दई पीठ श्रीजू को, 

कान्हा कौ खेल बाय नेंकु न भायौ।। 

बेरुखी क्यों मनमोहन मोसों, 

बिमुख भये क्यों न धीर धरायौ। 

ये नेह कौ बंध ना छूटे कबहूँ, 

कही ब्याह की का कोउ पाप कमायौ।। (3)


राधा की बात कूँ सुन गिरधारी, 

पलटे तौ भयौ अचरज अति भारी। 

राधा कूँ नाय दिखे घनश्याम, 

कान्हा की ठौर देखी राधा प्यारी।। 

नख ते शिख तक वृषभानु लली, 

नाहि लखी कहूँ कृष्ण मुरारी। 

ठाड़ी देखत दोऊ आँख मलै, 

फिर बोली श्याम तू है लीलाधारी।। (4)


ब्याह कूँ सरीर तौ दो ही चहें, 

एक सरीर ते कैसें ब्याह रचावें। 

मिलन करूँ कैसें अपने आप ते, 

भये दो तन अरु मन एक कहावें।। 

फिर भान भयौ प्रभु की लीला कौ, 

हिय समझ गयी ये तो ब्रह्म कहावें।

विलग कहाँ राधा कृष्ण कबहुँ, 

जुग जुग तक बे दोऊ एक कहावें।। (5)


नरेन्द्र कुमार शर्मा (सनाढ्य)

" बब्बू ब्रजवासी "

पता: 119, 52, ख़ुशी विहार, 

पत्रकार कॉलोनी, मानसरोवर

जिला:- जयपुर (राज.) 302020


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