पिछले दो दिन से पत्नी की तबीयत ठीक नहीं थी। घर में खाने के लाले पड़े थे। ऐसी मुफलिसी में दवा-दारू कैसे करे ? परंतु पत्नी को यूँ ही बिना इलाज के कैसे मरने दे ?
पाँच साल पहले वह बेटे की इलाज के लिए गैरकानूनी तरीक़े से अपनी एक किडनी बेच चुका है। अब क्या करे ?
काफी सोच-विचार कर वह एक निजी अस्पताल में अपना खून बेच कर नौ सौ रुपए का जुगाड़ कर ही लिया। हाथ-पैर जोड़ कर डॉक्टर साहब को अपनी झोपड़ी में भी ले आया। उसे पूरा विश्वास था कि अब उसकी पत्नी बच जाएगी।
डॉक्टर ने पत्नी की नब्ज देखी। बी.पी. वगैरह चेक कर एक सादे कागज पर कुछ दवाइयाँ लिखकर देते हुए कहा, "मैंने दवाइयाँ लिख दी हैं। ये इन्हें खिला देना। ये जल्दी ही ठीक हो जाएँगी।"
अपनी फीस के 500/- रुपए लेकर डॉक्टर साहब चले गए।
वह लाचार-सा कभी पत्नी तो कभी डॉक्टर की पर्ची, कभी डरे सहमे छोटे-छोटे बच्चों तो कभी हाथ में बचे हुए 400/- रुपए को देखता रहा।
कुछ सोच कर वह तेजी से भागते हुए मेडिकल स्टोर पहुँचा।
दवाई लेकर घंटे भर बाद जब वह घर पहुँचा, तो पत्नी दुनिया छोड़ चुकी थी।
वह उलटे पैर मेडिकल स्टोर पहुँचा और बोला, "कृपया ये दवाइयाँ वापस ले लीजिए और मेरे पैसे मुझे लौटा दीजिए, क्योंकि ये दवाइयांँ जिसके लिए खरीदा था, वह अब इस दुनिया में ही नहीं है।"
मेडिकल स्टोर का संचालक बोला, "देखिए, रूल्स के मुताबिक यहाँ हम बिकी हुई दवाई के बदले दवाई ही दे सकते हैं, रुपए नहीं लौटा सकते ? बोलिए, इन दवाइयों के बदले आपको क्या दें ?
"एक कफन दे दीजिए। कफन खरीदने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैँ।" कहते हुए रो पड़ा वह।
डॉ० प्रदीप कुमार शर्मा
ग्रंथालयाध्यक्ष, छत्तीसगढ़ पाठ्यपुस्तक निगम
एचआईजी 408, ब्लॉक डी, कंचन अश्व परिसर डंगनिया
पोस्ट ऑफिस – पं0 रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय
रायपुर-492010, छत्तीसगढ़