बहुत कुछ पढ़ा,
अखबारों में ,
सोशल मीडिया पर
और समाचारों में ।
कविता, गीत, ग़ज़ल और लघुकथा
सब में पिता के प्रेम की कहानी थी ।
सबने अपने-अपने तरीकों से,
इस रिश्ते की महिमा बखानी थी ।
मैंने भी सोचा,
मैं भी कुछ लिखूँ ।
पर ये क्या कलम रोने लगी कांपने लगी ।
मस्तिष्क की प्रवंचना को
भांपने लगी ।
न तो दूसरों की तरह
खाने को चॉकलेट,
बिस्किट या मिठाईयां थी,
और अच्छे कपड़ों के लिए
तरसता रहा बचपन ।
दिवाली जब भी आती थी,
पठाकों के लिए तरसता था मन ।
जो पटाखे,
ठीक से सुलग नहीं पाते थे ।
बस ! हम वे ही पड़ोस से
बीनकर ले आते थे ।
एक बार मित्र का अनुकरण करते हुए
मैं भी मांग बैठा था चवन्नी ।
मगर-
जानवरों की तरह ही
इतनी मार पढ़ी की आज भी,
नहीं भूल पाता हूँ,
अतीत की स्मृतियों से,
आज भी कुंठित हो जाता हूँ ।
मैं अच्छा खिलाड़ी भी था,
किन्तु -
मैदान से लौटते ही इंतज़ार करती थी,
हरी लकड़ियां जिसके निशान
मेरी पीठ पर आज भी दिखायी देते हैं ।
मुझे पता नहीं,
पिता का प्रेम किसे कहते हैं ?
बचपन से ही तो लिखता आया हूँ -
हर विधा में ,
मगर आपकी दृष्टि में -
वो महज कागज काले करना था ।
मुझे हर दिन टूटना था,
हर दिन बिखरना था ।
क्षमा चाहता हूँ -
मैं दूसरों की तरह,
आदर्श बातें नहीं लिख पाया ।
मैंने अपनी कलम को भी,
बहुत समझाया ।
वह भी मेरी तरह मजबूर हो गयी,
बस !
बातों-बातों में जीवन की व्यथा कह गयी ।
जब भी किसी ओर के द्वारा
पिता के प्यार का ज़िक्र होता है ।
मन बस यही कहता है,
क्या वाकई पिता ऐसा ही होता है ।
यशवंत चौहान
राष्ट्रीय ओज कवि
मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी अलंकरण प्राप्त साहित्यकार
इंदौर, मध्यप्रदेश