रोम रोम में रंगनाथ

अरुणिता
द्वारा -
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रोम रोम में समाया वही रंगनाथ है

 जिधर देखूँ उधर ही मेरे रंगनाथ हैं

प्रेम विह्वल युवती आण्डाल की पुकार

गुहार, मनुहार

ओ प्रियतम, मोहे दर्शन दो 

पुष्पहार बनाती हूँ तेरे लिए

जीती हूँ तुम्हारे लिए 

स्वप्न देखती हूँ तो बढ जाती है मेरी विरहाग्नि 


हे प्रीतम

रात रात भर जाग जाग कर

बस तुम्हारी छवि ही निहारती हूँ

जैसे पूर्ण चंद्र को निहार कर चांदनी में कोई 

नवयौवना प्रसन्न होती है


हे प्राणनाथ, उसी की तरह मैं भी 

खुश होती हूँ

क्या कहूँ, और किससे कहूँ कि 

भूलने लगती हूँ अपने पिता को

पिता की बातें भी अच्छी नहीं लगतीं

वन प्रांतर में नृत्य करती मोरनी बुरी लगती है

कोयलिया की कूक सुन कर टीस उभरती है 

ऐसी पीर कि कोयलिया

से कहती हूँ, जा जा कहीं और जाके

सुना ये भोंडा काक राग


फूल गूंथती हूँ 

तो माला 

में कोई बाल आ ही जाता है 

तो मंदिर का पुजारी  माला को

जूठा बताता है

 कैसा पुजारी है मूढ मति! 

नहीं अनुभव कर सकता मेरे प्रेम  

औ अनुराग को वह

हर पुष्प में मेरी छुअन 

मेरी चाहनाओं का कहन

संपूर्ण यौवन और मन रंगनाथ

को ही है समर्पित 


कावेरी के तट पर होगा मिलन

ब्याह करूंगी तो रंगनाथ से

अन्यथा विषपान कर लूंगी

याद है, उस दिन तो पिता के हाथ से 

माला ही छीन ली

अपने गले में ही माला डाल ली

पिता श्री ने डांटा, गुंथे हार को 

स्वयं पहन लिया

तू पागल हो गई क्या जो भगवान्

 की माला पहन रही है


हां, प्रेमातिरेक में माला पहनी

और जब स्वप्न में रंगनाथ दिखे तो

बलात् अपनी बांहों में 

इस प्रियतम को समेटना चाहा

विरहणी की मानिंद आकुल

व्याकुल मैं

छिप छिप कर रोती

अश्रुधारा में भी रंगनाथ की छवि


मेरे सामने न आकर

प्राण बल्लभ कितना तड़पाता है

जल बिन मछली सी छटपटाती हूँ

मेरे गहन प्रेम में ये व्यथा क्यों

विरह वेदना उठती ही क्यों इतनी


आण्डाल की मनोकामनाएं हुईं पूरी 

सफल हुआ सालोंसाल का प्रेम

प्रभु रंगनाथ ने आण्डाल से ही विवाह को 

दर्शन दिए लोगों को

रात रंगनाथ आण्डाल के स्वप्न में आए

तो बांछें खिल उठीं

सारी तपस्या को मिला सशक्त आयाम 

धूमधाम से 

रंगनाथ संग आण्डाल का विवाह हुआ


आज भी आण्डाल सदृश लड़कियां

देखती हैं स्वप्न अपने राजकुमार के लिए

ऐसी साधना, तपस्या भी तो हो

 नवयौवनाओं की

संघर्ष चलता रहे

होते रहें सपने पूरे

निर्मित हो आण्डाल सी समर्पणकारी

पहचान 

 उदात्त अस्मिता की बानगी

देदीप्यमान हो

स्वतंत्रता के पूर्ण भाव बोध 

और अधिकारों वाली सत्ता

प्रसन्नता देती रहे नारी को


प्रमोद झा 

बी - 392 कांशीराम जी नगर 

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 


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