स्त्री होना

अरुणिता
द्वारा -
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 क्या स्त्री होना अभिशाप 

जरूरी है बहे नसों में पवित्र खून 

किसी दैत्य सा जहर नहीं 

बहे सदियों तक कविता 

खिलता रहे पलास 

रंगने को तन मन 

अदबुध से अल्हड़ पेड़ पौधे यहाँ वहाँ 

निस्पृह जीवन लालसाओं से 

कि यूँ भी जिया जा सकता है बिना 

खाद पानी 

सुंदर आँखों के अश्रु छीन

भर दें स्वप्निल भाव 

नारी सोच  सके 

  पुनः जन्म  की सार्थकता 

अभी तो जीवन दुस्वप्न सा 

भीषण 

परित्यक्त स्नेह 

से ख़ून से रक्त रंजित 

पाँव से खड़ी है 

कहीं दुशासन तो कहीं रावण 

तो कहीं कलयुग के नए अवतरित 

नर पिशाच 

गले गले त्रासदियों में 

डूबता भंवर चक्र में घिरता 

बार बार 

कृष्ण की बाँसुरी 

और चक्र ख़ुद अचंभित है 

इस कलयुग असह वेदना से 

देखा था उस स्त्री ने

अपने ही रूप जो 

बाल्यावस्था में शिकार हुई थी 

तिल तिल घट रही रही 

जीवन में 

शरीर बढ़ रहा था 

वो भयग्रस्त थी 

और कितनी बार होंगे हादसे 

कितनी बार नोचना होगा 

ख़ुद से ख़ुद को 

क़सूर किसका है 

किसे दोषी ढहराय 

किस सांत्वना के शब्द 

रोप सकेंगे 

प्राण इस बेजान शरीर में 

अपने अविभावक का निस्तेज मुख 

निहार ,

उनकी अपमानित दृष्टि 

जिसमें हताशा ,मजबूरी 

भाई बहन की आक्रोशित कंपित आँखें 

थरथराते होट 

भाई की समाज के समक्ष

झुकी निगाहें 

बहन का ख़ुद के लिए वीभत्स भविष्य 

रिश्तेदारों का मुँह छुपाना 

अपराधी कौन 

जज साहब कह रहे हैं 

कुतरना अपराध नहीं

 जब तक पूरा ना निगला जाये  

मुंह बाये खड़ा है प्रश्न 

समूची इंसानियत के सामने 

शरीर के आधे अंग की सड़न से क्या 

पूरा शरीर नहीं सड़ेगा 

और 

यही होना है स्त्री होना 

तो अभिशाप है स्त्री जन्म 

कि न्याय भी

 आँखों पर पट्टी बाँधे है 


सावित्री शर्मा 'सवि'

३७/३ , इनकम टेक्स लेन 

सुभाष रोड 

देहरादून, उत्तराखंड 



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