’’ बहुत अच्छा व बड़ा परिवार है। एक देवर, दो ननदें , साथ ही सास-ससुर हैं। ’’ मम्मी बुआ को बता रही थीं।
अवसर मेरा विवाह तय होने से सम्बन्धित था। अभी लड़के वाले मुझे देखकर गये हैं। साथ ही अपने परिवार का परिचय और मेरे परिवार के बारे में जानकारी ले कर गये हैं।
लड़के वालांे के आने की जानकारी पा कर सब कुछ सम्हालने के लिए मम्मी ने दूसरे मुहल्ले में व्याही गयीं बुआ को बुला लिया। बुआ समीप रहती हैं तो ऐसी किसी समस्या या अवसर के आने पर तुरन्त फोन कर के उन्हें बुला लिया जाता है और वो खुशी-खुशी आ भी जाती हैं। कदाचित् पीहर से मोह लड़कियों में आजीवन बनी रहती है।
माँ के साथ मिलकर बुआ ने अतिथियों के लिए कुछ विशेष व्यंजन बनवाने में सहायता की। मुझे तैयार कर बैठक में अतिथियांे के सामने ले गयीं। अतिथियों में लड़के के पिता व जीजा आये थे।
कुछ प्रश्नों के उत्तर मैंने दिये। फिर पापा ने कहा अब घर में जाओ। मैं बुआ के साथ बैठक से चली आयी। पापा और अतिथि कुछ देर बैठ कर बातें करते रहे। कुछ देर पश्चात् अतिथि भी उठ कर चले गये।
’’ लड़के वाले तो इसे पसन्द कर गये हैं। ’’ पापा ने मम्मी व बुआ से कहा जिसे मैंने अपने कक्ष से सुना।
’’ भईया, हमारी निवेदिता जो अच्छी है ही। उसे तो कोई भी पसन्द कर लेगा। पढ़ाई भी अच्छी की है उसने। अब आपको भी लड़के व उसके घर को देखने जाना चाहिए। लड़की का व्याह ठोक-बजा कर अच्छे घर में करना चाहिए। ’’ बुआ ने पापा से कहा।
’’ हाँ, दीदी सही कह रही हैं। वो तो हमारी लड़की देखकर चले गये हैं। हमें भी उनके लडके को, उनका घर द्वार, परिवार के बारे में देखना-जानना चाहिए।’’ मम्मी ने पापा से कहा।
’’ भईया, देख लेना लड़का नौकरी-चाकरी वाला हो। नौकरी चाहे छोटी हो या बड़ी, दो पैसा कमाने वाला लड़का होना चाहिए। लड़के के पास पैसा न हो तो लड़की ससुराल में रहे या करावास में, एक ही बात हो जाती है। भैंसा गाड़ी की तरह काम को खींचना और दो रोटी खा कर पड़े रहना यही जीवन रह जाता है लड़की का। ’’ बुआ ने बिना लाग-लपेट के अपनी बात कही।
’’ ये कैसी बात कर रही पार्वती ( बुआ का नाम पार्वती )? जो लड़के देर से नौकरी पाते हैं वो भी तो अपने जीवन को सम्हाल ही लेते हैं। ’’ पापा ने कहा।
’’ भईया, आप मुझसे समझदार भी हैं और लड़की भी आप की ही है। मेरी बात बुरी लग रही है तो मैं अब सीधे निवेदिता के विवाह में ही आऊँगी। मैंने निवेदिता के ससुराल को बुरा नही कहा। बस यही तो कहा है कि ठीक से देखसुन कर विवाह के लिए आप हाँ कीजिएगा।.....लड़की के पिता हैं तो क्या आप लड़के वालों से दब कर रहेंगे, लड़की को भी दबा कर रखा जाएगा? ’’ कहती हुई बुआ अपना सामान ठीक करने में लगी थीं।
’’ अच्छा भईया हम चल रहे हैं। हम थोड़ा बोल दिये तो कोई बात नही। आप जानते तो हैं दूसरे के मामले में बोलने की मेरी आदत। जब भी कोई अवश्यकता हो फोन कर दीजिएगा। हम चले आएंगे। ’’ बुआ ने कहा और अपना छोटा-सा थैला लेकर बाहर निकल गयीं।
’’ अरे! विप्लव जल्दी जाओ। बुआ को रिक्शा करा दो। उनका थैला पकड़ लो। ’’ माँ ने छोटे भाई से कहा। वो बुआ के पीछे तेजी से बाहर निकल गया।
’’ कोई घर में आये और कुछ दुनियादारी सिखाने की बात करे तो उससे ऐसे बोला जाता है।....हमारी लड़की है, वो हमें कुछ करने से रोक थोड़ी रही हैं। समझा रही थीं। तो ग़लत क्या है? हमें जो करना है वो हम करेंगे ही।......’’ मम्मी बड़बड़ती हुई महमानों के चाय-पानी वाले कप-प्लेट धोने लगीं।
पापा भी ड्राइंग रूम के दीवान पर जाकर लेट गये। ये थी मेरे विवाह की पहली रस्म। मैं अपने कमरे में कुछ देर कुर्सी पर बैठी रही, कुछ देर पश्चात् एक पुस्तक जो कि अभी आधी पढ़ी थी, पढ़ने लगी।
अगले दिन सब कुछ सामान्य रहा। मेरे विवाह की कोई बात नही हुई। मम्मी ने शाम को फोन करके बुआ का हाल अवश्य पूछा कि वो ठीक से घर पहुँच गयी न? चूँकि बुआ नाराज होकर गयी थी अतः मम्मी ने बुआ का मन हल्का करने के लिए फोन किया। अन्यथा मम्मी इतनी शीघ्र फोन नही करतीं। घर के कार्यों की व्यस्तता में रहती है।
’’ परसों रविवार है। सोच रहा हूँ कि शरद ( फूफा जी ) के साथ जा कर निवेदिता की ससुराल में जाकर सब कुछ देखभाल लूँ। पार्वती सही कह रही थी। ’’ शाम की चाय पीने के पश्चात् पापा ने मम्मी से कहा।
’’ हाँ...हाँ..। तुम ठीक सोच रहे हो। वहाँ चले जाओ। घर देख लो। उनकी आर्थिक स्थिति, लड़के की कमाई आदि सब कुछ जान समझ लो। ’’ मम्मी ने कहा।
’’ ठीक है। शरद को फोन कर दें। परसों सुबह निकला जाये ताकि शाम तक वापस आ जाएँ। ’’ पापा ने कहा।
पापा ने फूफा जी को फोन कर दिया। फूफा जी ने पूछा कि वो कितने बजे बस स्टैण्ड पर पहुँच जाएँ? पापा ने सुबह का समय बता दिया। मेरे बुआ-फूफा, मम्मी पापा के किसी काम को मना नही करते।
रविवार को पापा सुबह छः बजे तक घर से निकल गये। उन्होंने फूफा जी से फोन करके पूछ लिया। फूफा जी कुछ पहले ही बस स्टैण्ड पर पहुँच चुके थे। मैं सामान्य दिनों की भाँति काॅलेज गयी। कुछ देर के लिए लाइब्रेरी गयी। मन पसन्द कवि की कविता की पुस्तक पढ़ी। तीन बजे घर आ गयी।
पापा और फूफा जी अभी तक नही आये थे। भोजन कर के मैं अपने कमरे में चली गयी। अपने व्याह की तैयारियों की ओर से ध्यान हटाने के लिए एक कविता लिखी। कविता पढ़ने और लिखने में मेरी रूचि है। मैंने देखा छः बज रहे हैं पापा अभी तक नही आये हैं। मैं पुनः कुछ लिखने लगी। सात बजे पापा और फूफा जी घर आये।
’’ निवेदिता, पापा और फूफा जी के लिए चाय बना दो। नाश्ता भी रसोई में रखा है, उसे प्लेट में रख कर लाओ। ’’ मम्मी ने मुझे आवाज दी।
मैं शीघ्रता से उठी। रसोई में गयी। गैस पर चाय चढ़ाई, दूसरी ओर प्लेटों में नाश्ता रखने लगी। नाश्ते की सभी चीजें और चाय प्लेट में रख कर ड्राइंगरूम में देने गयी।
’’ लड़के की पढ़ाई अच्छी है। देखने भी अच्छा है। बी0 टेक0 किया है। जल्दी ही नौकरी में आ जाएगा। घर भी ठीक ही है। भरापूरा परिवार है। ’’ पापा मम्मी को बता रहे थे।
मैंने चाय की ट्रे लेकर ड्राइंगरूम में प्रवेश किया और मम्मी-पापा की बातचीत बन्द हो गयी। मैं बस इतना ही सुन पायी। मुझे अधिक सुनने की इच्छा भी नही थी। मम्मी-पापा जो उचित समझेंगे वो करेंगे। चाय दे कर मैं ड्राइंगरूम से बाहर आ गयी।
मैं अपने कमरे में आ गयी। फूफा जी व मम्मी-पापा ड्राइंग रूम में बैठ कर बातें कर रहे थे। कुछ देर पश्चात् फूफा जी चले गये। मम्मी-पापा भीतर आ गये।
मैंने मम्मी-पापा की ओर देखा। उनके चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे। मुझे इस विषय में कुछ नही कहना था, न ही मम्मी-पापा की ओर से मेरी इच्छा पूछी गयी।
काॅलेज में जब से मैं लाइबे्ररी में जाने लगी थी। तब से मेरी रूचि साहित्य की ओर बढ़ती जा रही थी। यही कारण था कि स्नातकोत्तर में मैंने साहित्य विषय लिया।
मम्मी-पापा मेरे विवाह की बात कहाँ, कैसे और किससे कर रहे थे, उसमें मेरी रूचि नही थी। मैं शिक्षा और साहित्य से जुड़ रही थी। स्नात्कोत्तर का फईनल वर्ष की परीक्षाएँ थीं। घर में मेरे विवाह की तैयरियाँ चल रही थीं।
मेरा उन तैयारियों में कोई योगदान नही था। न ही किसी ने मुझसे कोई योगदान मांगा। मम्मी मेरी बुआ के साथ बाजार जा कर कपड़े, लत्ते, गहने, बर्तन, आदि लेकर आती। विवाह के समय पहनने के लिए लाये गये कपड़े, लहंगे, चूड़ियाँ, गहने आदि बुआ ने मुझे दिखाये। मैंने देखा। सब ठीक ही थे।
जब चीजें ले ही ली गयी थीं तो पसन्द नापसन्द का प्रश्न भी तो नही था। वैसे भी सब कुछ मुझे ठीक लगा। फरवरी माह प्रारम्भ होने वाला था। अगले माह मार्च में मेरी परीक्षाएँ होने वाली थी।
’’ सुनो, आज वहाँ से फोन आया था। लड़के के पिता कह रहे थे कि फरवरी में विवाह की कई अच्छे मुहुर्त पड़ रहे हैं। उनमें से देखसुन कर एक तिथि विवाह के लिए तय कर लिया जाये। उनका कहना था कि विवाह की सब तैयारियाँ पूरी हो ही गयी हैं। ’’ पापा शाम को कार्यालय से आये और मम्मी से कह रहे थे।
’’ हाँ, ठीक है। तिथि तय कर लेते हैं। आप और बहनोई जी चले जायें और मिल बैठ कर तिथि तय कर लें। चाहें तो वो लोग ही यहाँ आ जायें और बात तय हो जाये। ’’ मम्मी ने पापा से कहा।
मैंने उनकी बातें सुनी और मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे मेरी शिक्षा अधूरी रह जाएगी।
’’ पापा, मार्च में मेरे पेपर हैं। मेरी परीक्षा हो जाये तब मेरे विवाह की तिथि तय कीजिए। मैं स्नातकोत्तर तो पूरी कर लूँ। ’’ मैंने पापा से कहा।
मम्मी पापा का चेहरा देखने लगी। पापा कुछ सोचने की मुद्रा में दिखे और अपने कमरे में चले गये। पापा के पीछे-पीछे मम्मी भी गयी।
’’ हाँ ठीक है, मैं कल ही फोन कर दूँगा। परीक्षा के पश्चात् विवाह की तिथि तय कर ली जाये। एक माह की बात है। निवेदिता भी खुश हो जाएगी। स्नातकोत्तर पूरी करने की उसकी इच्छा भी पूरी हो जाएगी। मैं फोन कर के उन्हें बता दूँगा। ’’ पापा ने मम्मी से कहा।
’’ हाँ, बिटियाँ घर के काम तो करती ही है....पढ़ाई भी बहुत मन लगा कर करती है। उसकी सहेलियाँ आती हैं तो हमें बताती है कि निवेदिता उन सबसे अधिक नम्बरों से पास हुई है। एक महीने की बात है, वो तो यूँ ही व्यतीत हो जाएंगे। ’’ मम्मी ने कहा।
मैं निश्चिन्त हो गयी कि परीक्षा दे सकूँगी। मेरा स्नातकोत्तर पूरा हो जाएगा।
अगले दिन मैं काॅलेज गयी....लाइब्रेरी गयी। शाम को अच्छे मूड में घर आयी। मम्मी काॅलेज की पढ़ाई आदि के बारे में पूछने लगीं।
’’ सब ठीक है मम्मी। चलिए रसोई का काम करा लेते हैं। तब तक पापा आ जाएंगे। ’’ मैंने मम्मी से कहा।
’’ ठीक है बेटा, भोजन बना लेते हैं। कुछ ही देर में पापा भी आ जाएंगे। ’’ मम्मी ने कहा।
’’ अरे ये लड़के वाले अपने आप को न जाने क्या समझते हैं? ’’ डोरबेल बजी। पापा भीतर आये। आते ही उन्होंने कहा।
’’ क्या हुआ? ’’ मम्मी चिन्तित हो गयी।
’’ कुछ नही। चाय बनाओ। ’’ कह कर पापा हाथ-मुँह धोने बाशरूम में चले गये।
मम्मी चाय लेकर ड्राइंगरूम में चली गयीं।
’’ हुआ क्या है, जो तुम ऐसी बात कर रहे थे? ’’ मम्मी ने पापा से पूछा।
’’ कह क्या रहे हैं? लड़के का बाप सीधे कह रहा है कि लड़की आप की बात नही मान रही? शुरू से नियंत्रण में नही रखा? ’’ उसकी बात सुनकर मेरी तो जान जल गयी।
मैंने भी उनसे कह दिया कि अरे कहीं और जाओ कोई लड़की देखो। मेरी बेटी जैसी तो कहीं पाओगे नही। तुम्हारे जैसे विचारों वाले घर में मुझे अपनी अपनी बेटी देनी नही है। ’’ कह कर मैंने फोन काट दिया।
उसके पश्चात् लड़के के पिता का फोन कई बार बजा किन्तु मैंने उठाया नही। लड़के का फोन दो बार बजा। दूसरी बार में मैंने फोन उठाया। लड़के ने कहा कि -पापा की बात का बुरा न मानिए। मैं जानता हूँ कि आपकी बेटी बहुत शालीन और प्रतिभाशाली है। जिसे मैं समझ रहा हूँ। विवाह मुझे करना है। इसलिए अंकल आपसे मेरा निवेदन है कि पापा की बात का बुरा न मानिए। ’’ लड़का अपनी बात पूरी कर पाता उसके पूर्व ही फोन में पीछे से उसके पिता की आवाज आई.......
.......’’ रख फोन। कुछ कमाता तो न जाने क्या करता? बाप की बात काट रहा है। ’’ और फोन कट गया।
लड़के का फोन दुबारा नही आया।
’’ पार्वती दीदी सही कह रही थीं कि नौकरी वाला लड़का देखना। नौकरी चाहे छोटी हो या बड़ी किन्तु लड़का दो पैसे कमाने वाला ही ढूँढ़ना। दो पैसे हाथ में रहेंगे तो अपनी निर्णय लेने की क्षमता रखेगा।’’ मम्मी ने कहा।
हमारी बेटी किसी बेटे से कम है क्या? वो स्वंय नौकरी करेगी और तमाम लड़के उससे विवाह की इच्छा लेकर आएंगे। ’’ पापा ने कहा।
मैं अपने कमरे में थी और मम्मी-पापा की सभी बातों को सुना। पापा की बात सुनकर मेरे नेत्र भीग गये, यह सोच कर कि पापा को मुझ पर कितना विश्वास है। मैं उनके विश्वास को कभी नही तोड़ूंगी।
मेरा विवाह लगभग टूट गया था। लड़के वालों की ओर से स्पष्ट उत्तर आने से पूर्व ही मेरी स्नातकोत्तर की परीक्षा पूरी हो गयी। मैंने साहित्य विषय में ही स्नात्कोत्तर किया था।
अब मैंने कोचिंग कक्षा में प्रवेश ले लिया। पढ़ने और घर के कार्यों में मम्मी का हाथ बँटाने के अतिरिक्त मेरा कोई काम नही था।
’’ अजीब हैं ये लड़के वाले? ’’ एक दिन शाम को कार्यालय से आते ही पापा ने मम्मी से कहा।
’’ लड़के के पिता का फोन आया। कह रहे थे कि लड़की विवाह के लिए मान गयी? अब तो उसकी परीक्षा भी हो गयी होगी? ’’ पापा ने कहा।
’’ आपने क्या कहा? ’’ मम्मी ने कहा।
’’ मैंने पूछा कि आपके लड़के की नौकरी लग गयी? ’’
’’ हाँ...हाँ.....। उसकी एक प्राइवेट और अच्छी कम्पनी में नौकरी लग गयी है। ’’ लड़के के पिता ने बच्चों की भाँति चहकते हुए कहा।
’’ठीक है। मेरी बेटी मेरे नियंत्रण में है अतः उससे पूछे बिना कुछ नही बता सकता। ’’ मैंने कहा और फोन रख दिया।
’’ ठीक कहा। निवेदिता पढ़ कर नौकरी करना चाहती है। वो जो कहे वो करना है। ’’ मम्मी ने कहा।
पापा मम्मी की बात से सहमत थे। पढ़ाई के साथ-साथ मैं नौकरियों के फार्म डाल रही थी। कुछ न कुछ लिखती भी रहती थी।
’’ निवेदिता की मम्मी, लड़के वाले तो बहुत परेशान कर रहे हैं। लड़के के पिता का फोन आया कई बार। आज तो लड़के का फोन आ गया। कह रहा था कि उसके पिता की बात का बुरा न मानिए। उनका स्वभाव व बोली ठीक नही है। शादी मुझे करनी है। मुझे आपकी बेटी पसन्द है। आपके आशीर्वाद से उसको सुख से दो रोटी खिलाने योग्य मैं हो गया हूँ। ’’ अब बताओ मैं क्या करूँ? पापा मम्मी से कह रहे थे।
’’ मुझे तो लड़के वालों के रंग ढंग समझ में ही नही आ रहे हैं। एक बार उल्टा-सीधा बोलते हैं। फिर दूसरी बार शराफत वाली बात बोलते हैं। ’’ मम्मी ने कहा।
’’ लड़का तो बहुत रिरिया रहा था। कह रहा था कि शादी करेगा तो निवेदिता से, नही तो करेगा ही नही। बताओ क्या करें? पापा ने मम्मी से कहा।
’’ अब तुम समझ लो। निवेदिता से पूछ कर ही कुछ करना। ’’ मम्मी ने कहा।
मैं मम्मी-पापा की सभी बातें सुन रही थी। इन बातों में, इन चर्चाओं में मेरे अपने कोई विचार नही थे। भले ही ये सभी बातें मेरे जीवन से सम्बन्धित थीं, किन्तु मैंने सब कुछ मम्मी-पापा पर छोड़ दिया था। मैं अपनी शिक्षा, नौकरी की तलाश व लेखन में मग्न थी।
’’ अब प्रतिदिन लड़का फोन कर रहा है। कह रहा है कि उसके घर के सभी सदस्य इस विवाह के लिए तैयार हंै। आप लोग तिथि तय कर लीजिए। मुझे निवेदिता के अतिरिक्त कुछ नही चाहिए। दान दहेज कुछ नही चाहिए। अब बताओ मैं क्या करूँ। ’’ आज भी पापा कार्यालय से घर आये तो यही कह रहे थे।
’’ ऐसा करो, जब कुछ समझ में न आये तो अगले अवकाश में ननद-ननदोई जी को बुला लो। उनसे इस समस्या पर बात होे जाएगी। वे उचित राय देने में सहयोग करंेगे। ’’ मम्मी ने पापा से कहा।
’’ ठीक है। उनको फोन कर देंगे कि आने वाले संडे को वे दोनों आ जाएँ। ’’ पापा ने कहा।
संडे को बुआ जी, ्फूफा जी के साथ आयीं। सभी लोग पापा के कमरे में बैठे थे। उनमें क्या बातें हो रही थीं मेरी जानने की इच्छा नही थी। मेरे माता-पिता मेरे लिए जो अच्छा होगा वो ही करेंगे।
मैं अपने कमरे में आकर लेट गयी। मन नही लग रहा था तो एक उपन्यास पढ़ने लगी जो कुछ दिनों पूर्व ही लाइब्रेरी से निकलवा कर लायी थी। बुआ और फूफा को मम्मी ने शाम का भोजन करा कर जाने दिया।
समय अपनी गति से चल रहा था। मैंने कुछ नौकरियों के फार्म भरे थे। उनमें से एक नौकरी का परिणाम आया जिसमें मैं सफल हो गयी थी। किन्तु मेरा साक्षात्कार शेष था जिसकी तिथि नही आयी थी।
’’ निवेदिता, वो लोग जो तुम्हें देखने आये थे। तुम तो जानती हो बेटा कि उनके व्यवहार से परेशान होकर मैंने रिश्ता तोड़ दिया था। अब लड़का नौकरी में आ गया है। बार-बार उसका फोन आ रहा है। कहता है कि विवाह करेगा तो निवेदिता से करेगा नही तो विवाह ही नही करेगा। अब तुम्हीं बताओ बेटा हम उसे क्या उत्तर दें? कुछ समझ में नही आ रहा है? ’’ पापा ने मुझसे पूछा।
’’ जैसा आप उचित समझें पापा। दो दिनों पश्चात् मेरा साक्षात्कार है और मुझे जाना है। ’’ मैंने पापा से कहा।
’’ आज ही लेटर मिला है। पर्यटन विभाग के मुख्यालय में जाना है। ’’ मैंने पापा से कहा।
मेरी बात सुनकर पापा चुपचाप वहाँ से चले गये। मैंने मम्मी के साथ रसोई में थोड़ा हाथ बँटाया। मम्मी ने कहा कि जा कर साक्षात्कार की तैयारी करो तो मैं अपने कमरे में चली गयी।
मेरे विवाह का जो भी निर्णय हुआ हो घर में मुझे उन बातों से कोई लेना देना नही था। बस, मुझे आजकल की ऋतु बहुत अच्छी लगने लगी थी। अक्टूबर माह प्रारम्भ हो चुका था। हल्के कोहरे की चादर ओढ़कर निकलता सवेरे का सूर्य। पर्वों की सुगन्ध से भरी हुई साँझ घने वृक्षों से हो कर शनैः-शनैः धरती पर उतरती। मैं घर की छत से ऋतुओं के बदलते रूप का आनन्द लेती। दिन का मौसम भी कम मनोरम नही होता।
मेरे घर की छत से दिखाई देते कुछ बचे-खुचे खेतों की मेडों पर लहराते कांस के असंख्य उजले गुच्छे ऐसे प्रतीत होते जैसे मानों धरती पर नहीं आसमान मंे श्वेत बादलों में हरी दूब के साथ उड़ रहे हैं। घर की छत पर लगे रंग-बिरंगे पुष्पों, पत्तियों पर भोर में श्वेत ओस की बूँदें मोतियों की भाँति चमकतीं। हल्की धूप की किरणों की चमक आते ही वे छुप जातीं, पुनः अगले दिन की भोर में आने के लिए।
कुछ वर्ष पूर्व इन स्थानों पर खेत ही खेत ही थे। अब तो खेत समाप्त होते जा रहे हैं और इन स्थानों पर घर बनते जा रहे हैं। फिर भी कुछ प्राकृतिक सौन्दर्य शेष है, जिसे देख कर हृदय पुलकित हो जाता है।
युवा विद्यार्थी दिनों के ऐसे ही मनोरम क्षणों में मेरे दिन व्यतीत हो रहे थे। मैं अपना अधिकांश समय और ध्यान पढ़ाई पर दे रही थी।
’’ वार्षिक परीक्षा का परिणाम आने के पश्चात् निवेदिता के विवाह की तिथि तय करनी होगी। लड़का कह रहा है कि वो निवेदिता को खुश रखेगा। आज ही लड़के का फोन आया है। ’’ पापा मम्मी से कह रहे थे।
’’ उसके माता-पिता निवेदिता के साथ कहीं बुरा व्यवहार करें तब हम क्या करेंगे? ’’ मम्मी ने चिन्तित होते हुए पूछा।
’’ लड़के से मैंने पूछा तो वो कह रहा था कि निवेदिता को किसी प्रकार से परेशानी हुई तो उसे लेकर वो अलग रहने चला जाएगा। वह यह भी बता रहा था कि इस समय उसके माता-पिता सभी निवेदिता से विवाह करने के लिए तैयार हैं। ’’ पापा ने कहा।
अप्रैल में मेरा विवाह हो गया। मैं परीक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थी। नौकरी का एक साक्षात्कार भी दे चुकी थी। जिनका परिणाम आना शेष था। ससुराल के दिन वैसे ही कट रहे थे जैसे अपनी सहेलियों से सुना था........कुछ खट्टे, कुछ मीठे।
मम्मी के घर आती तो वापस ससुराल जाने का मन नही होता। किन्तु वही मेरा अपना घर था। यहाँ तो सब कुछ पराया था। अतः माता-पिता को विदा करना ही होता और मुझे जाना ही होता। पाँच माह ससुराल आये हो चुके थे।
अब मैं दूसरी बार मम्मी के घर जाने वाली थी। दो दिनों प्श्चात् मुझे जाना था। अवसर था भाईदूज का। मैं अपने कुछ कपड़े और आवश्यक वस्तुएँ पैक कर चुकी थी। शाम को हर्ष ( मेरे पति ) समय से कार्यालय से घर आ गये।
’’ क्या हुआ? आज कार्यालय में काम कुछ अधिक था क्या? ’’ हर्ष का उतरा चेहरा देख कर, पानी का ग्लास पकड़ाते हुए मैंने पूछा।
’’ नही। ’’ हर्ष ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
’’ तो आज चेहरा क्यों उतरा हुआ है? ’’ मैंने कहा। क्यों कि मैंने महसूस किया कि जैसे हर्ष के चेहरे की पूरी उर्जा किसी ने निचोड़ ली है।
’’ तुम्हेें हर समय मेरा मजाक उड़ाना अच्छा लगता है? मैके जाने की खुशी मना रही हो तो उसे ही मनाओ। मुझसे कोई बात न करो। ’’ हर्ष ने बेरूखी से कहा।
मैं अचम्भित थी। इस प्रकार की बात तो मैं हर्ष से बहुत कम करती हूँ। आज न जाने कैसे उसका उतरा हुआ चेहरा देख कर बोल दिया।
रात तक इस रहस्य से पर्दा उठ ही गया, जो हर्ष मुझसे छुपा रहा था।
’’ जब से बहू आयी है तब से कोई अच्छी बात घर में नही हुई। हठ कर के इसने इस लड़की से विवाह कर लिया। आज उसकी रही-सही नौकरी भी छूट गयी। ’’ ड्राइंगरूम में ससुर से बातें कर रहीं अपनी सास के स्वर सुनकर मैं पत्थर की भाँति जम-सी गयी।
मेरे दो दिन ससुराल में किस प्रकार कटे इसे मैं ही समझ सकती हूँ। हर्ष ने मुझसे एक-दो शब्दों...हाँ...हूँ....के अतिरिक्त कोई बात नही की।
’’ तैयार हो जाओ। तुम्हें मायके जाना है। मैं चलकर बस में बैठा दूँगा। ’’ हर्ष ने ऐसे कहा जैसे उसकी नौकरी मेरे कारण चली गयी।
’’ तुम मेरे साथ नही चलोगे? ’’ मैंने पूछा।
’’ नही, और हाँ, जब जी चाहे आ जाना। अधिक दिन रूक जाओगी तो भी कोई बुरा नही मानेगा। ’’ हर्ष ने कहा।
मैं अपनी स्थिति समझ गयी। हर्ष मुझे बस मंे बैठा कर घर चला आया। भरी मन से मैं माँ के घर पहुँची।
’’ बेटी, तुम अकेले आ गयी। दामाद जी साथ नही आये? ’’ मम्मी ने मेरा बैग अन्दर कमरे मेें रखते हुए पूछा।
माँ के प्रश्न का कोई उत्तर मैंने नही दिया।
’’ निवेदिता, हाथ-मुँह धो कर भोजन कर लो बेटा। तत्पश्चात् थोड़ा आराम कर लो।......और हाँ दो दिन पूर्व तुम्हारा एक लिफाफा आया है। मैंने सोचा कि भईयादूज में आओगी तो ले लोगी। इसलिए भेजा नही। ’’ कह कर मम्मी ने एक भूरे रंग का बन्द लिफाफा मेरे हाथों में पकड़ा दिया।
निराश मन से मैंने लिफाफा पकड़ लिया यह सोच कर कि किसी परीक्षा का बुलावा होगा। लिफाफा खोल कर देखा तो सहसा विश्वास नही हुआ......मेरी नौकरी का नियुक्ति पत्र था।
’’ क्या है बेटा? ’’ मेरे चेहरे के बदलते भावों को देखकर मम्मी खुश लग रही थीं।
’’ मम्मी, भूख लग रही है। पहले भोजन कर लूँ फिर बताती हूँ। ’’ मम्मी से कह कर मैं हाथ धोने वाशबेसिन की ओर बढ़ गयी।
मैंने सोचा कि पहले अपने आँचल में खुशियों को भर तो लूँ? ससुराल से बाहर दूसरे शहर में जा कर नौकरी करने के बारे में स्वंय को दृढ़ तो कर लूँ? अपने पति की उस बात कर उत्तर तो सोच लूँ कि जब तक चाहे मायके में रहना।
और सबसे मुख्य बात यह कि मेरे ही माता-पिता द्वारा मुझे अपने पति से दब कर रहने, उसका सम्मान करना, उसकी किसी बात का उत्तर न देना तथा जैसे भी बन पड़े उसके साथ जिन्द़गी निबाहना और यदि उसकी इच्छा है कि मैं नौकरी न करूँ तो मैं उसकी यह इच्छा भी मानूँ।.....
......अपने माता-पिता के प्रश्नों के समुचित उत्तर ढूँढ़ने का समय यही था। ऊपर वाले की बहुत बड़ी कृपा थी मेरे सिर पर कि मम्मी ने यह पत्र मेरी ससुराल के पते पर रीपोस्ट नही किया।
मैं भोजन करती जा रही थी साथ ही मेरे मन में विवाह से पूर्व से लेकर अभी मम्मी के घर आने तक सभी ससुराली जनों का व्यवहार स्मरण आ रहा था। सबसे अधिक मेरे हृदय पर चोट करने वाला व्यवहार मेरे पति का था।
मैंने भोजन समाप्त किया और मम्मी के साथ उनके रूम में आ कर बैठ गयी। मम्मी मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देख कर मुस्करा रही थीं।
’’ मम्मी, मुझे नौकरी के लिए नियुक्ति पत्र आया है। ’’ जहाँ मेरी नौकरी लगी थी उस शहर का नाम बताते हुए मैंने मम्मी से कहा।
’’ ये तो बहुत प्रसन्नता की बात है। दामाद जी को सूचना दे दो। जैसी उनकी इच्छा हो वैसा करो। ’’ मम्मी ने कहा।
’’ उससे क्या पूछना? पढ़ाई मैंने की, परिश्रम मैंने की। नौकरी उसकी इच्छा से करूँगी? उसकी इच्छा नही होगी तो नही करूँगी? ’’ मैंने मम्मी से कहा।
’’ तुम्हें नौकरी करने को मना नही कर रही हूँ। बस दामाद जी से पूछने को कह रही हूँ। ’’ मम्मी ने कहा।
’’ वो सब बातें छोड़ो। कल ही मैं ये नौकरी ज्वाइन करूँगी।......’’ मेरी बात सुनकर मम्मी मेरा मुँह ताकने लगीं।
’’......मम्मी तुम उस दामाद से पूछने को कह रही हो जिसकी नौकरी छूट गयी है? नौकरी छूट गयी है तो कोई बात नही इन्सानित भी खत्म हो गयी है। मैं जब वहाँ से चलने लगी तो कहने लगा कि जितने दिन चाहो माँ-बाप के घर रहना। ’’ मुझे बस में बैठा कर चला गया। यहाँ तक पहुँचाने भी नही आया। कहो तो पूछ लूँ? मुझे नौकरी करनी है या नही? ’’ कह कर मैंने मम्मी की ओर देखा।
मेरी बात सुनकर मम्मी के चेहरे की पूरी प्रसन्नता ऐसे उड़ी जैसे जीवन में कभी मुस्कराईं न हो?
अगले दिन पापा के साथ जाकर मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली।
’’ बेटा, तुम आराम से चिन्तारहित हो कर नौकरी करो। किसी से पूछने की आवश्यकता नही है। तुम खुश रहो। अपने परिश्रम से तुमने जो कुछ हासिल किया है उसकी खुशियाँ मनाओ। ’’ पापा मेरे साथ बस में बैठे थे और मुझे समझा रहे थे। कदाचित् मम्मी ने उन्हें सारी बातें बता दी थीं।
पापा की बातें मैं सुन रही थी। अब मुझे समझ में आया कि महिलाओं की आत्मनिर्भरता को क्यों इतना महत्व दिया जा रहा है? मैं आधे घंटे का सफर बस से तय करने के पश्चात् कार्यालय मेें थी।
’’ शाम को तुम्हें लेने आ जाएँ बेटा? ’’ पापा ने पूछा।
’’ नही पापा, मैं आ जाऊँगी। मैं आपकी बड़ी बेटी हूँ और मुझे बड़ों का तरह रहना होगा। जहाँ आपके सहारे की आवश्यकता होगी वहाँ मैं आगे बढ़ कर सहारा मांगूगी। ’’ मैंने पापा से कहा।
पापा मेरी ओर देखकर मुस्कराने लगे। उनके चेहरे पर गर्व के भाव थे।
ज्वाइनिंग करने के पश्चात् मैं नियमित रूप से कार्यालय जाने लगी। दो सप्ताह व्यतीत हो गये। ससुराल से किसी का फोन नही आया। मेरे पति ने कभी हाल नही पूछा।
सहसा एक दिन मेरे पिता के पास मेरे ससुर का फोन आया।....... उन्हें बहुत शिकायत थी कि बहू को नौकरी करा रहे हैं और उन्हें बताया नही। वे यह भी कह रहे थे कि बहू के वेतन के बारे में भी कोई जानकारी हम लोगांे ने उन्हें नही दी......आदि......आदि....।
’’ पापा, आप उनसे स्पष्ट कह दीजिए कि मुझे उनसे अब कोई रिश्ता नही रखना। इन्सान को परखने के लिए पूरी उम्र बरबाद करने की आवश्यकता मैं नही समझती। ’’ मैंने पापा से कहा।
’’ तुम्हारी बात सत्य है। हम सब तुमसे सहमत हैं किन्तु लड़के ने तो कुछ नही कहा। ’’ पापा ने मुझे ससुराल वालों के पक्ष में समझाना चाहा।
’’ पापा, मैं बार-बार कह रही हूँ। उसकी नौकरी छूटने से मुझे समस्या नही है। आपका दामाद मुझे समझा सकता था। मैं उसकी विवशता समझती। उसका साथ देती। किन्तु उसकी बातों से प्रतीत हो रहा था कि इन स्थितियों की उत्तरदायी मैं हूँ। मैं ऐसे आदमी के साथ जीवन बरबाद नही कर सकती, जिसने विवाह के पहले कहा था कि बुरे समय में वो मेरे साथ रहेगा।......वो साथ क्या रहेगा जो स्टेशन पर छोड़ कर मुझे चला गया?......मेरा मूल्यांकन मेरी नौकरी और सैलरी देख कर लगाएंगे? मैं बिकाऊ नही हूँ पापा। अच्छा या बुरा जैसे भी हो मैं अपना जीवन सम्हाल लूँगी। एक बार मैंने आप सबकी बात कर विवाह कर लिया था। अब प्लीज पापा आप मेरी बात मान लीजिए। मुझे भी थोड़ा जी लेने दीजिए। ’’ मैंने पापा से कहा मम्मी भी वही थीं।
मेरी बात सुनकर पापा खमोश हो गये। मम्मी रोने लगी।
’’ हमने अपनी बेटी को किस मुसीबत में ढकेल दिया। विवाह के लिए उसने कुछ नही कहा तो हमने भी उसकी इच्छा नही पूछी। इतनी प्रतिभाशाली बेटी को हमने किन असभ्य लोगों के हाथों में सौंप दिया। ’’ कहते-कहते मम्मी रोती भी जा रही थीं।
’’ रोओ नही मम्मी, उनके कारण तुम्हारी बेटी का साहस कम नही हुआ है। मैं ठीक हूँ। अब मुझे कुछ खाने को दे दो। भूख लग रही है। सुबह समय से कार्यालय जाना है। ’’ मैंने मम्मी से कहा।
भोजन कर मैं अपने कमरे में चली गयी। कुछ देर बैठ कर सोचती रही। फिर मैंने डायरी निकाली। आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखने की इच्छा हो रही थी। मैंने एक कविता लिखी।
विवाह के पश्चात् जो साहस ससुराल में टूटा है वो, अपनी पूरी वो पीड़ा जिससे मेरा हृदय इस समय पूरी तरह डूबा है, वो सब कुछ मैं अपनी लेखनी में उतार देना चाहती हूँ।
मैंने मम्मी से कहा है कि मैं साहसी हूँ, तो अब मुझे साहसी बन कर दिखाना है। मैंने अपनी डायरी और पेन की ओर देखा और मन ही मन कहा कि कोई और हो न हो तुम मेरे साथ हो। हो न?
अपनी भावनाएँ पन्नों पर उतारने लगी। मन हल्का हो गया। मैंने डायरी और पेन मेज पर रख कर दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखा। मेरे निद्रामग्न होने का समय हो रहा था। अगली प्रातः समय पर उठ कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना था।
नीरजा हेमेन्द्र
लखनऊ, उत्तर प्रदेश