तुम साथ साथ चली थी
कोमल सी फैली रेत पर
हवा ने उड़ाया था उत्तरीय
मै दौड़ कर लपकने चला
वो दूर गया हवा के झोंके से
रेत पर उकर गये थे
पैरों के निशान
वही लिख दिया था
तुम्हारा नाम!
..........
मैं गुनगुनाउंगा तुम्हारा नाम
जो तुमने रेत पर लिखा था
मैंने थाम ली तुम्हारी अंगुलिया
जब लिखने लगी मेरा नाम
मुझे पता था तुम होगी दूर मुझसे
वो स्पर्श अंगुलियों का
अमिट छाप सा है मन पर
सागर की आती लहरों में
ढूंढता हूँ आज भी वो गीत
जो तुमने गुनगुनाया था कमी
लहरे लौट जाती हैं वो थिरकन लेकर
मैं मलने लगता हूँ अंगुलिया
लहरों मे डुबो कर हाथ
गिरती बूंदों मे पढ़ता हूँ
तुम्हारा नाम!
वी० पी० दिलेन्द्र
मानसरोवर, अग्रवाल फार्म,
जयपुर-302020
राजस्थान