वो बत्तीस अंक

अरुणिता
द्वारा -
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बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा ग्यारहवीं में पढ़ती थी। हमारी छमाही परीक्षा हो चुकी थी ।कक्षा में सभी विषयों के पेपर जाँच के बाद छात्रों को दिखाए जा रहे थे ।हिन्दी के अध्यापक पेपर देने के साथ कुछ ना कुछ कह भी रहे थे ।जब उन्होंने मुझे पेपर दिया तो कहने लगे कि “आशा तो निराशा में बदल गई “।मैंने देखा कि मेरे सौ में से 32 अंक आए थे ।इतना दुःख तो अंक देख कर नहीं हुआ जितना कि उस कटाक्ष से हुआ ।मेरी आँखें भर आईं थी।मुझे अपनी त्रुटियों भी दिखाई नहीं दे रही थी । पीरियड ख़त्म होने के बाद मैंने सर से आधे अंक के लिए निवेदन किया,क्योंकि आधे अंक से 33 अंक हो जाते थे,लेकिन वह नहीं माने ।डर इस बात का लग रहा था कि रिपोर्ट कार्ड में एक विषय पर लाल चिन्ह लगा होगा ।मेरे पापा एक विद्यालय निरीक्षक थे ।अपने काम के प्रति बेहद निष्ठावान और अनुशासन प्रिय थे ,हालाँकि यह स्कूल उनके अधीन नहीं था फिर भी शिक्षा विभाग से सम्बन्धित कितने ही कर्मचारी उन्हें जानते थे ।हिन्दी के सर भी पापा को जानते थे।पापा के ग़ुस्से से डर लग रहा था ।हुआ भी वही जैसे ही रिपोर्ट कार्ड सामने आई ।पापा ने अच्छी तरह डाँटा और मम्मी को भी आड़े हाथों लिया ।रही सही कसर मम्मी ने पूरी कर दी कि मैं हिन्दी जैसे विषय में फेल हो गई ।एक तो पहले ही मन ख़राब था ऊपर से परिवार वालों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी ।अब तो सहपाठियों से भी नज़रें नहीं मिला पा रही थी ऐसा लग रहा था कि एक नहीं पूरी की पूरी फेल हो गई हूँ ।अब मैंने हिन्दी विषय की तरफ़ विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया था ।

समय बीतता गया। स्कूल की शिक्षा समाप्त होने के बाद मेरा दाख़िलाJ,B.T में करवा दिया गया ।साथ ही साथ मैंने पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से प्रभाकर की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। उन दिनों हरियाणा में हिन्दी अध्यापक के पद के लिए प्रभाकर होना आवश्यक था ।मैंने रोज़गार कार्यालय जाकर हिन्दी अध्यापक के पद के लिए अपना पंजीकरण करवा दिया ।

कुछ दिनों बाद तीन विद्यालयों की तरफ़ से अस्थाई हिन्दी अध्यापक के पद के चयन के लिए बुलावा आ गया ।हैरानी की बात यह थी कि उन में से एक वही सेकेण्डरी स्कूल भी था जहां से मैंने ग्यारहवीं कक्षा पास की थी और इत्तफ़ाक़ से मेरी नियुक्ति उसी स्कूल में हुई ।जब मैं नियुक्ति पत्र लेकर वहाँ पहुँचीं तो बहुत कुछ याद आ गया ।अभी भी कुछ मेरे अध्यापक वहाँ पर कार्यरत थे। कार्य भार सँभालने के बाद मैं स्टाफ़ रूम में कम ही बैठती थी ।मुझे अपने शिक्षकों के साथ मिलकर बैठना उचित नहीं लगता था ।लेकिन एक दिन पुस्तकालय में हिन्दी सर से मुलाक़ात हो ही गई ।उन्हें देखते ही मैंने अपनी कुर्सी से उठ कर आदर से प्रणाम किया। मुझे देखते ही वे बोले “अरे बैठो बैठो !”मुझे भाटिया साहब ने तुम्हारे बारे में जानकारी दी थी अब तो तुम भी हमारे बराबर हो गई हो।” नहीं सर आप तो मेरे गुरू है मैं आपकी बराबरी कैसे कर सकती हूँ”।मैंने बड़ी नम्रता से जवाब दिया ।वे फिर कहने लगे “गुरू को बड़ी प्रसन्नता होती है जब उनके शिष्य बराबरी तो क्या उन से भी ऊँची उड़ान भरें मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं“इतना कह कर वे चले गए ।मैं उनके कहे हुए पुराने शब्द याद कर रही थी और मन ही मन में बोल भी रही थी कि आज निराशा ने सफलता का दामन थाम लिया है सर ।कभी-कभी असफलता सफलता की पहली सीढ़ी बन जाती है ।उसके बाद मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा ।इसी तरह मैं नौकरी भी करती गई और आगे की पढ़ाई भी प्राईवेट तरीक़े से जारी रही और इसी तरह से मैंने M.A B.Ed किया ।2020 में मैं दिल्ली के एक सरकारी स्कूल से हिन्दी अध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हुई हूँ।


आशा भाटिया

जनकपुरी, नई दिल्ली  


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