व्यग्र पाण्डेय

झूठ सदा से

झूठ सदा से लगती आई तेज देखने में सुनने में संग बोलने में भी पर बन ना पाई सच आज तक वो सच चमक-दमक से दूर सहजता के पास होत…

मरघट का नीम

सच मैं रोया था उस दिन जब मैं रोपा गया शमशान के एक कोने में आवश्यकता जानकर मैं मरते मरते कई बार जिया हूँ …

यादें बचपन की

यादें बचपन की होती अमूल्य निधि जीवन की माँ के अंक के आगे सभी गणितीय अंक फीके अंगुली पकड़ के चले   तुतलाकर …

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